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आखिर क्या है विंशोत्तरी महादशा?

जन्म कुंडली में ग्रहों की स्थिति के अनुसार जीवन में घटित होने वाली घटनाओं को जानने के लिए महादशाएं महत्वपूर्ण मानी जाती हैं. ज्योतिष जगत में विंशोत्तरी, अष्टोत्तरी, योगिनी व चर दशा आदि दशाएं प्रसिद्ध हैं. लेकिन घटनाओं के समय निर्धारण में विंशोत्तरी दशा की उपयोगिता निर्विवाद व सर्वसम्मत रूप से महत्वपूर्ण मानी जाती है.   विंशोत्तरी दशा का निर्माण त्रिकोण पद्धति के आधार पर हुआ है. राशि चक्र में 360 अंश होते हैं. इसका प्रत्येक त्रिकोण 120 अंश का होता है. विंशोत्तरी दशा क्रम में त्रिकोण के 120 अंशों को ध्यान में रखते हुए मनुष्य के पूर्ण आयु काल का मान 120 वर्ष निश्चित किया गया है. अतः प्राचीन ऋषि-मुनियों ने मानव जीवन को 120 वर्ष का मानते हुए 27 नक्षत्रों को 9 ग्रहों में बांटकर तथा प्रत्येक ग्रह को 3-3 नक्षत्रों का स्वामी बनाकर एक दशा क्रम या दशा पद्धति तैयार की. इसे ही विंशोत्तरी महादशा पद्धति कहा जाता है. दशा पद्धतियां वैसे तो बीसियों हैं पर सभी दशा पद्धतियों का आधारभूत तथ्य नक्षत्र ही हैं. ज्योतिष के क्षेत्र में जिस सर्वप्रिय दशा पद्धति का प्रयोग होता है उसको विंशोत्तरी दशा पद्धति कहते हैं. इस दशा पद्धति को विंशोत्तरी इसलिए कहते हैं क्योंकि यहां ग्रहों को प्रदान किए गए दशा वर्षों का कुल योग 120 होता है और संस्कृत शब्द विंशोत्तरी का अर्थ भी 120 है. इस विंशोत्तरी दशा पद्धति में सूर्य के 6, चंद्रमा के 10, मंगल के 7, राहु के 18, गुरु के 16, शनि के 19, बुध के 17, केतु के 7 और शुक्र के 20 वर्ष होते हैं. यानि ग्रहों को प्रदान किए गए दशा वर्षों का कुल योग 120 होता है इसलिए भी इस दशा पद्धति को विंशोत्तरी दशा कहते हैं. विंशोत्तरी दशा पद्धति को ज्योतिष जगत में सर्वाधिक महत्व प्राप्त है क्योंकि इस दशा पद्धति के आधार पर की गई भविष्यवाणियां व भावी घटनाओं का समय निर्धारण काफी सटीकता से बताया जा सकता है. उपरोक्त सभी दशा पद्धतियां भी अपनी-अपनी जगह ठीक हैं, लेकिन विंशोत्तरी दशा पद्धति सर्वाधिक प्रभावशाली व वैज्ञानिक है. इस तथ्य को प्रायः सभी विद्वान मानते हैं. यहाँ तक कि पाश्चात्य विद्वान भी इस दशा पद्धति को प्रामाणिक मानते हैं. महादशा को अंग्रेजी में Major Period भी कहते हैं. 

विंशोत्तरी महादशा की गणना में चंद्र नक्षत्र का चुनाव क्यों?

जन्म कुंडली हमारे शरीर, सूर्य कुंडली हमारी आत्मा और चंद्र कुंडली हमारी मानसिक स्थिति के बारे में बताती है क्योंकि ज्योतिष शास्त्र के अनुसार लग्न शरीर, सूर्य आत्मा व चंद्रमा मन का प्रतिनिधित्व करते हैं. हमारी मानसिक स्थिति, विचारों व वासनाओं के कारण ही हमारी आत्मा शरीर धारण करती है और हमारा अगला जन्म सुनिश्चित होता है. अर्थात हमारी मनोमय सृष्टि, वासनाओं व विचारों के कारण ही हमारा जन्म होता है यही कारण है कि हमारे महान ऋषि-मुनियों ने चंद्रमा(मन) के नक्षत्र को आधार मानकर विंशोत्तरी महादशा की गणना करने का चुनाव किया. 

विंशोत्तरी महादशा में ग्रहों का शुभ-अशुभ फल जानने के रोचक व महत्वपूर्ण ज्योतिषीय सूत्र- 

  • किसी भी कुंडली में लग्नेश और त्रिकोणेश हमेशा ही लाभकारी होते हैं और अपनी दशा/अन्तर्दशा में शुभ फल प्रदान करते हैं.

  • जब भी केंद्राधिपति और त्रिकोण अधिपति की युति होती है तो यह युति उच्च स्तर का राजयोग देती है. 

  • शुक्र की राशियों(वृषभ और तुला लग्न) के लिए शनि और शनि की राशियों(मकर और कुंभ लग्न) के लिए शुक्र योगकारक होता है. इसी प्रकार कर्क और सिंह लग्न के लिए मंगल योगकारक होता है. योगकारक ग्रह की दशा/अन्तर्दशा शुभ फल देती है.

  • द्वितीयेश और द्वादशेश अपनी शुभाशुभ स्थिति व अन्य ग्रहों के साथ युति, दृष्टि व अपनी भाव स्थिति के अनुसार शुभाशुभ फल प्रदान करते हैं. यदि यह अकेले बैठे हो और शुभ भावों में स्थित हों तो सम फल प्रदान करते हैं. 

  • तृतीयेश, षष्ठेश अष्टमेश और एकादशेश अशुभ माने जाते हैं और सामान्यतः इनकी दशा कष्टकारी हो सकती है. लेकिन षष्ठेश व एकादशेश आर्थिक मामलों के लिए फायदेमंद होते हैं मगर सेहत के मामलों के लिए कष्टकारी साबित हो सकते हैं. 

  • यदि कोई शुभ ग्रह दो केंद्र भावों का स्वामी हो तो वह शुभ नही रहता है.

  • यदि कोई अशुभ ग्रह केंद्र भावों का स्वामी हो तो उसकी अशुभता में कमी आती है लेकिन अगर वह एक त्रिकोण भाव का स्वामी भी हो जाता है तो अपनी दशा/अन्तर्दशा में शुभ फल प्रदान करता है.

  • अष्टम भाव का स्वामी ग्रह उस कसाई के रूप में कार्य करता है जो पहले अपनी बकरी को पाल-पोस के बड़ा करता है और अंत में उसका वध कर देता है. इसलिए अष्टमेश अधिकतर अशुभ ही होता है. अष्टमेश जिस भाव में बैठता है और जिस ग्रह से संबंधित होता है उस ग्रह और भाव का वध कर देता है. अर्थात उसको बिगाड़ कर रख देता है या उसका नाश कर देता है. लेकिन यदि अष्टमेश अष्टम भाव में स्थित हो या अन्य शुभ भावों में स्थित हो और किसी भी ग्रह को पीड़ित न कर रहा हो तो आकस्मिक व आध्यात्मिक लाभ प्रदान कर सकता है. 

  • एक नैसर्गिक शुभ ग्रह का केंद्र भाव का स्वामी होना शुभ नही होता है विशेषकर यदि वह केन्द्राधिपति होकर किसी केंद्र भाव में बैठा हो और वह केंद्र में अपनी राशि को दृष्ट न करता हो. 

  • एक नैसर्गिक शुभ ग्रह केन्द्राधिपति होने के साथ-साथ तीसरे, छठे या ग्यारहवें भाव का स्वामी भी हो तो शुभ परिणाम नहीं देता है.

  • एक नैसर्गिक शुभ ग्रह केन्द्राधिपति होकर यदि दूसरे या सातवें भाव का भी स्वामी होता है या इन भावों में बैठता है तो अपनी दशा में घातक परिणाम भी दे सकता है.

  • एक त्रिकोणेश यदि किसी त्रिक भाव में बैठा हो उसके शुभ फल देने की क्षमता में कमी आती है. ऐसे में सफलता कठिनाइयों से और कठोर परिश्रम व संघर्ष के उपरांत मिल सकती है.

  • एक त्रिकोणेश यदि तीसरे, छठे या ग्यारहवें भाव का स्वामी भी हो तो वह प्रारंभिक कठिनाइयों व चुनौतियों के उपरांत सफलता दे सकता है.

  • एक नैसर्गिक पापी ग्रह के त्रिकोणेश होने की बजाय एक नैसर्गिक शुभ ग्रह त्रिकोणेश होने पर अति शुभ फल प्रदान करता है.

  • कोई भी दशानाथ अपनी महादशा/अंतर्दशा में अपने द्वारा गृहीत भाव और उन भावों का परिणाम देता है जिनका वह कारक होता है.

  • शनि नैसर्गिक रूप से मारक ग्रह है और यदि यह दूसरे या सातवें भाव अथवा इन भावों के स्वामियों से संबंध बनाता है तो अपनी महादशा में जातक को मार सकता है. अगर यह मारता नही है तो अपनी दशा में सभी प्रकार के दुख और कष्ट पहुंचाता है.

  • कुंडली के बाधक स्थान में बैठा दशानाथ अपनी दशा/अन्तर्दशा में तनाव, समस्याएं और रोग दे सकता है.

  • दशानाथ के स्वामित्व, बल और अन्तर्दशानाथ की दशानाथ से स्थिति के अनुसार दशानाथ के परिणामों में परिवर्तन होता है.

  • अन्तर्दशानाथ सदैव ही शुभता या अशुभता के लिए दशानाथ को प्रभावित करता है.

  • यदि अन्तर्दशानाथ महादशानाथ से 2,4,5,9,10 या 11वें भाव में होता है तो शुभ फल देता है.

  • अन्तर्दशानाथ की महादशानाथ से 1 या 7वें भाव में स्थिति सामान्य और हल्के परिणाम देती है.

  • यदि अन्तर्दशानाथ महादशानाथ से 3, 6, 8 या 12वें भाव में स्थित हो परिणाम अशुभ होते हैं.

  • यदि महादशानाथ और अन्तर्दशानाथ नैसर्गिक मित्र हों और दुस्थानों को छोड़कर शुभ भावों के स्वामी हों तो प्रभावशाली व शुभ परिणाम देते हैं.

  • महादशानाथ की उच्च राशि में बैठा अन्तर्दशानाथ अपनी अंतर्दशा में अनुकूल फल देता है.

  • महादशानाथ से 4, 5, 9, 10वें भाव के स्वामियों की अंतर्दशा अनुकूल फल देती है.

  • महादशानाथ और उसके नक्षत्रेश की दशा/अंतर्दशा में प्रमुख घटनाएं घटित होती हैं.

दशा/अंतर्दशा पर गोचर का प्रभाव

गोचर में दशानाथ की स्थिति या कुंडली में दशानाथ से गोचर के अन्य ग्रहों की स्थिति महादशा/अंतर्दशा के प्रभावों में परिवर्तन लाती है.

यदि जन्म कुंडली में ग्रह अशुभ स्थानों या त्रिक स्थानों का स्वामी न हो तो जब गोचर में ग्रह अपनी उच्च, स्वराशि या मूलत्रिकोण राशि वाले भावों में या कुंडली की अपनी स्थिति से 3, 6, 10 या 11वें भाव में आता है तो उसका दशा/अंतर्दशा काल शुभ होता है.

विंशोत्तरी महादशा/ अंतर्दशा का एक रोचक उदाहरण 

मान लीजिए कि किसी व्यक्ति की जन्म कुंडली में केतु और मंगल का प्रभाव दशम भाव, दशमेश, दशम राशि अर्थात मकर और दशम राशि के स्वामी शनि पर पड़ रहा है. चिकित्सा ज्योतिष के अनुसार यह सारे तथ्य शरीर में घुटनों का प्रतिनिधित्व करते हैं. ज्योतिष शास्त्र के अनुसार मंगल और केतु उग्र, पित्त प्रकृति वाले, अग्नि तत्व प्रधान, हिंसात्मक व चोट और दुर्घटनाओं के कारक ग्रह हैं अतः मंगल की महादशा और केतु की अंतर्दशा या केतु की महादशा व मंगल की अंतर्दशा में जब मंगल या केतु 6, 8, 12 भावों में गोचर कर रहे हों तो उस व्यक्ति के घुटनों में चोट लग सकती है.

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